1857 की क्रांति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम महत्वपूर्ण चरण थी, जिसमें राजस्थान ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजस्थान में प्रथम विद्रोह नसीराबाद (अजमेर) में 28 मई 1857 को हुआ था। इस विद्रोह के दौरान राजस्थान के विभिन्न रियासतों के राजाओं और ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्टों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। इस अध्याय में हम राजस्थान की विभिन्न रियासतों में 1857 की क्रांति के समय की स्थिति, राजाओं एवं पॉलिटिकल एजेन्टों की भूमिका का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
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राजस्थान में 1857 के समय ब्रिटिश प्रशासनिक संरचना
1857 के विद्रोह के समय राजस्थान में ब्रिटिश शासन राजपूताना एजेन्सी के माध्यम से संचालित होता था। इस एजेन्सी का मुखिया गवर्नर जनरल का एजेन्ट (A.G.G.) होता था, जिसके अधीन विभिन्न रियासतों में पॉलिटिकल एजेन्ट नियुक्त किए जाते थे।
- गवर्नर जनरल का एजेन्ट (A.G.G.): 1857 की क्रांति के समय राजस्थान के A.G.G. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स थे।
- विद्रोह का प्रारम्भ: मेरठ के विद्रोह की खबर मिलने पर A.G.G. ने अजमेर स्थित 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री को नसीराबाद भेजा, जिससे सैनिकों में असंतोष पैदा हुआ और 28 मई 1857 को नसीराबाद में विद्रोह प्रारम्भ हुआ।
रियासत | पॉलिटिकल एजेन्ट | 1857 के समय शासक |
---|---|---|
भरतपुर | मॉरिसन | महाराजा जसवंत सिंह प्रथम |
जयपुर | विलियम ईडन | महाराजा राम सिंह द्वितीय |
जोधपुर | मैक मेसन | महाराजा तख्त सिंह |
कोटा | मेजर बर्टन | महाराव राम सिंह |
उदयपुर | कैप्टन शावर्स | महाराणा स्वरूप सिंह |
विभिन्न रियासतों में विद्रोह की स्थिति
1. नसीराबाद में विद्रोह
- राजस्थान का प्रथम विद्रोह नसीराबाद में 28 मई 1857 को हुआ।
- 30वीं नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने भी इसमें भाग लिया।
- छावनी को जला कर और कब्ज़ा करके सैनिक दिल्ली की ओर चले गए।
2. कोटा में विद्रोह
- 14 अक्टूबर 1857 को मेजर बर्टन ने महाराव राम सिंह द्वितीय से मिलकर जयदयाल और मेहराब खान के विरुद्ध कार्यवाही की सलाह दी।
- 15 अक्टूबर 1857 को विद्रोहियों ने मेजर बर्टन, उनके दो पुत्रों (फ्रैंक और आर्थर), डॉ. सेल्डर, डॉ. सेविल कॉन्टम और देवी लाल की हत्या कर दी।
- विद्रोहियों ने महाराव राम सिंह द्वितीय को नजरबंद कर लिया और कोटा पर कब्जा कर लिया।
3. जयपुर में विद्रोह
- पॉलिटिकल एजेन्ट ईडन के निर्देश पर महाराजा राम सिंह द्वितीय ने विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाही की।
- प्रमुख विद्रोही:
- सादुल्लाह खान (निष्कासित)
- विलायत खान (गिरफ्तार)
- उस्मान खान (गिरफ्तार)
- अंग्रेजों ने महाराजा राम सिंह द्वितीय को सितार-ए-हिन्द की उपाधि और कोटपुतली परगना प्रदान किया।
4. भरतपुर में विद्रोह
- गुर्जर और मेव समुदायों ने क्रांति में सक्रिय भागीदारी की।
- महाराजा जसवंत सिंह ने पॉलिटिकल एजेन्ट मॉरिसन को भरतपुर छोड़ने की सलाह दी।
5. अलवर में विद्रोह
- महाराजा विनय सिंह अंग्रेजों के समर्थक थे, लेकिन उनके दीवान फैज उल्लाह खान ने विद्रोहियों का साथ दिया।
राजपूत शासकों की भूमिका
राजस्थान के अधिकांश शासक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। इसके पीछे कई कारण थे:
1. उदयपुर के महाराणा स्वरूप सिंह
- समस्त राजपूत राजाओं के मान्य प्रमुख के रूप में अपने प्रभाव का उपयोग करके अन्य राजाओं को अंग्रेजों के प्रति वफादार रहने की सलाह दी।
2. करौली के महाराजा
- अंग्रेजों के समर्थन में सैनिक भेजे।
- ग्वालियर के विद्रोहियों को अपने क्षेत्र से बाहर निकाला।
- कोटा में फंसे महाराव की सहायता के लिए 800 सैनिक भेजे (बाद में 1500 की रेनफोर्समेंट भी भेजी)।
- अपने राज्य में घोषणा जारी करके विद्रोह के विरुद्ध लोगों का समर्थन मांगा।
3. जयपुर के महाराजा राम सिंह द्वितीय
- अत्यधिक प्रलोभनों के बावजूद अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे।
- ब्रिटिश समर्थक कार्यों के लिए सितार-ए-हिन्द की उपाधि प्राप्त की।
4. टोंक के नवाब
- अपनी सेनाओं के विद्रोह के बावजूद “व्यक्तिगत जोखिम और आर्थिक नुकसान” सहन करते हुए अंग्रेजों का समर्थन किया।
5. जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह
- अपने विद्रोही सरदारों के कारण अंग्रेजों की सहायता करने में असमर्थ होने के बावजूद अपनी ब्रिटिश समर्थक भावना प्रदर्शित की।
टांट्या टोपे की राजस्थान में भूमिका (1858 ई.)
टांट्या टोपे ने 1857 के विद्रोह के दौरान राजस्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई:
- राजस्थान में प्रवेश: टांट्या टोपे राजस्थान में दो बार आए, पहली बार भीलवाड़ा के मांडलगढ़ क्षेत्र से।
- टोंक में समर्थन: टोंक में नासिर मुहम्मद खान ने टांट्या टोपे का अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में समर्थन किया।
- कुआडा का युद्ध: 9 अगस्त 1858 को जनरल रॉबर्ट्स ने कोठारी नदी के तट पर हुए कुआडा के युद्ध में टांट्या टोपे को हराया।
- झालावाड़ में संघर्ष:
- झालावाड़ के राजा पृथ्वी सिंह ने पलायता में टांट्या टोपे के विरुद्ध सैनिक भेजे।
- अधिकांश सैनिकों ने लड़ने से इनकार कर दिया, केवल गोपाल पलटन रेजिमेंट ने लड़ाई लड़ी।
- टांट्या टोपे ने झालावाड़ पर सफलतापूर्वक कब्जा किया और राजा पृथ्वी सिंह से 5 लाख रुपये की फिरौती वसूली।
- बांसवाड़ा में विजय: टांट्या टोपे ने बांसवाड़ा के राजा लक्ष्मण सिंह को भी हराया।
शासकों की वफादारी के कारण
- मराठा और पिंडारी उत्पीड़न से सुरक्षा: अंग्रेजी संरक्षण ने राजपूत शासकों को मराठों और पिंडारियों के उत्पीड़न से बचाया था।
- आंतरिक अराजकता: अधिकांश शासक अपनी रियासतों के प्रमुख सरदारों के साथ निरंतर संघर्ष में थे, इसलिए उन्हें एक ऐसे सर्वोच्च शासक की आवश्यकता थी जो उन्हें आंतरिक अराजकता से सुरक्षा प्रदान कर सके।
- राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव: शासकों में आपसी एकता नहीं थी और वे राजनीतिक दूरदर्शिता से वंचित थे, जिससे वे भारतीय राजनीति की दिशा को समझने में असमर्थ थे।
- संधियों के लाभ: अंग्रेजों के साथ संधि से होने वाले लाभों को वे किसी ऐसे विद्रोह के पक्ष में त्यागना नहीं चाहते थे, जो उनके पहले से ही परेशानी पैदा करने वाले सामंतों को और मजबूत कर सकता था।
रियासत की स्थिति | शासक की भूमिका | परिणाम |
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अंग्रेजों के समर्थक | सक्रिय समर्थन, विद्रोहियों पर कार्रवाई | पुरस्कार, उपाधियाँ, अतिरिक्त क्षेत्र |
तटस्थ | अप्रत्यक्ष समर्थन/कम सक्रिय | सामान्य संबंध, सीमित विशेषाधिकार |
विद्रोहियों के समर्थक | विद्रोहियों को मदद, अंग्रेजों का विरोध | दंड, जाँच, राजनीतिक अधिकारों में कमी |
विद्रोह के परिणाम
- शासकों को पुरस्कार:
- विद्रोह के दौरान अंग्रेजों का समर्थन करने वाले अनेक शासकों को सम्मानित और पुरस्कृत किया गया।
- उन्हें विभिन्न उपाधियाँ और विशेषाधिकार प्रदान किए गए।
- सामंतों की शक्ति में कमी:
- विद्रोहियों का समर्थन करने वाले सामंतों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की गई।
- अंग्रेजों ने व्यवस्थित रूप से उनकी शक्तियों और अधिकारों को कम किया।
- व्यापारी वर्ग को समर्थन:
- अंग्रेजों ने अपनी नीतियों में व्यापारियों के हितों को प्राथमिकता दी।
- व्यापारिक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया गया।
- प्रशासनिक परिवर्तन:
- विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अपनी प्रशासनिक नीतियों में बदलाव किए।
- राजपूताना में ब्रिटिश नियंत्रण को और मजबूत किया गया।
विद्रोह से पहले | विद्रोह के दौरान | विद्रोह के बाद |
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ब्रिटिश सत्ता विस्तार की नीति | विभिन्न रियासतों में विद्रोह प्रारंभ | अधिकांश शासकों की वफादारी के लिए पुरस्कार |
रियासतों पर हस्तक्षेप की नीति | कुछ शासकों और सामंतों का विद्रोहियों को समर्थन | विद्रोही सामंतों के अधिकारों में कमी |
सहायक संधि व्यवस्था | शासकों की वफादारी की परीक्षा | रियासतों पर ब्रिटिश नियंत्रण का और सुदृढ़ीकरण |
1857 की क्रांति के दौरान राजस्थान का इतिहास द्वंद्वपूर्ण रहा। जहाँ एक ओर नसीराबाद, कोटा, जयपुर, भरतपुर, अलवर आदि में विद्रोह हुए, वहीं दूसरी ओर अधिकांश राजपूत शासक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। खेरवाड़ा और ब्यावर छावनी 1857 के विद्रोह में शामिल नहीं हुई।
राजस्थान के राजाओं की अंग्रेजों के प्रति वफादारी के कई कारण थे – मराठों और पिंडारियों के उत्पीड़न से मुक्ति, आंतरिक अराजकता, राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव, और अंग्रेजों के साथ संधियों से प्राप्त लाभ। वहीं, सामंतों ने विद्रोह का समर्थन किया क्योंकि वे अंग्रेजी शासन के जारी रहने से अपना राजनीतिक पतन होते देख रहे थे।
इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि 1857 की क्रांति भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में राजस्थान में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती है, जिसमें राजाओं और पॉलिटिकल एजेन्टों की भूमिका का अध्ययन हमें तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझने में मदद करता है।
नोट: यह अध्याय प्रतियोगी परीक्षाओं (RPSC, RAS, पटवारी, ग्राम विकास अधिकारी आदि) के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।